बुधवार, 12 अगस्त 2020

15+ तेनालीराम कि कहानीयां | 15+ Tenaliram story's in hindi

 नमस्कार दोस्तो, मै Av Hindi Creator आज आपके लिऐ लेकर आया हूँ तेनालीराम कि बेहद रोचक व शिक्षाप्रद कहानीयां, जिन्हे पढकर आपका मनोरंजन के साथ-साथ आपके ज्ञान में भी वृद्धि होगी, उम्मीद करता हूँ आपको यह कहानीयां पसन्द आयेगी। 

तो चलिऐ शुरू करते है!!


15+ तेनालीराम कि कहानीया | 15+ Tenaliram Story's in hindi


तेनालीराम कि कहानीया
तेनालीराम कि कहानीया


1. अंतिम इच्छा :- 


समय के साथ-साथ राजा कॄष्णदेव राय की माता बहुत वॄद्ध हो गई थीं। एक बार वह बहुत बीमार पड गई। उन्हें लगा कि अब वे शीघ्र ही मर जाएँगी। उन्हें आम से बहुत था, इसलिए जीवन के अन्तिम दिनों में वे आम दान करना चाहती थीं। सो उन्होंने राजा से ब्राह्म्णों को आमों को दान करने की इच्छा प्रकट की। वह् समझती थी कि इस प्रकार दान करने से उन्हें स्वर्ग की प्राप्ति होगी। सो कुछ दिनों बाद राजा की माता अपनी अन्तिम इच्छा की पूर्ति किए बिना ही मॄत्यु को प्राप्त हो गईं।

उनकी मॄत्यु के बाद राजा ने सभी विव्दान ब्राह्म्णों को बुलाया और अपनी माँ की अन्तिम अपूर्ण इच्छा के बारे में बताया। कुछ देर तक चुप रहने के पश्चात ब्राह्म्ण बोले,” यह तो बहुत ही बुरा हुआ महाराज, अन्तिम इच्छा के पूरा न होने की दशा में तो उन्हें मुक्ति ही नहीं मिल सकती। वे प्रेत योनि में भटकती रहेंगी। महाराज आपको उनकी आत्मा की शान्ति का उपाय करना चाहिये।”


तब महाराज ने उनसे अपनी माता की अन्तिम इच्छा की पुर्ति का उपाय पूछा। ब्राह्म्ण बोले, “उनकी आत्मा की शांति के लिये आपको उनकी पुण्यतिथि पर सोने के आमों का दान करना पडेगा।” अतः राजा ने मॉ की पुण्यतिथि पर कुछ ब्राह्म्णों को भोजन के लिय बुलाया और प्रत्येक को सोने से बने आम दान में दिए।


जब तेनाली राम को यह पता चला, तो वह तुरन्त समझ गया कि ब्राह्म्ण् लोग राजा की सरलता तथा भोलेपन का उठा रहे हैं। सो उसने उन ब्राह्म्णों को पाठ पढाने की एक योजना बनाई।


अगले दिन तेनाली राम ने ब्राह्म्णों को निमंत्रण-पत्र भेजा। उसमें लिखा था कि तेनाली राम भी अपनी माता की पुण्यतिथि पर दान करना चाहता हैं। क्योंकि वह भी अपनी एक अधूरी इच्छा लेकर मरी थीं। जब से उसे पता चला है कि उसकी माँ की अन्तिम इच्छा पूरी न होने के कारण प्रेत-योनी में भटक रही होंगी, वह बहुत ही दुःखी है और चाहता है कि जल्दी उसकी मॉ की आत्मा को शान्ति मिले। ब्राह्म्णों ने सोचा कि तेनाली राम के घर से भी बहुत अधिक दान मिलेगा’ क्योंकि वह शाही विदूषक है।


सभी ब्राह्म्ण निश्चित दिन तेनाली राम के घर पहुँच गए। ब्राह्म्णों को स्वादिष्ट भोजन परोसा गया। भोजन करने के पश्चात् सभी दान मिलने की प्रतीक्षा करने लगे। तभी उन्होने देखा कि तेनाली राम लोहे के सलाखों को आग में गर्म कर रहा है। पूछने पर तेनाली राम बोला, “मेरी माँ फोडों के दर्द् से परेशान थीं। मॄत्यु के समय उन्हें बहुत तेज दर्द हो रहा था। इससे पहले कि मैं गर्म सलाखों से उनकी सिकाई करता, वह मर चुकी थी।” अब उनकी आत्मा की शान्ति के लिए मुझे आपके साथ वैसा ही करना पडेगा, जैसी कि उनकी अन्तिम इच्छा थी।” यह सुनकर ब्राह्म्ण बौखला गए। वे वहॉ से तुरन्त चले जाना चाहते थे। वे गुस्से में तेनाली राम से बोले कि हमें गर्म सलाखों से दागने पर तुम्हारी मॉ की आत्मा को शान्ति मिलेगी?”


“नहीं महाशय्, मैं झूठ नहीं बोल रहा। यदि सोने के आम दान में देने से महाराज की मॉ की आत्मा को स्वर्ग में शान्ति मिल सकती है तो मैं अपनी मॉ की अन्तिम इच्छा क्यों नहीं पूरी कर सकता?”


यह सुनते ही सभी ब्राह्म्ण समझ गए की तेनाली राम क्या कहना चाहता है। वह बोले, “तेनाली राम, हमें क्षमा करो। हम वे सोने के आम तुम्हें दे देते हैं। बस तुम हमें जाने दो।”


तेनाली राम ने सोने के आम लेकर ब्राह्म्णों को जाने दिया, परन्तु एक लालची ब्राह्म्ण ने सारी बात राजा को जाकर बता दी। यह सुनकर राजा क्रोधित हो गए और उन्होनें तेनाली राम को बुलाया। वे बोले “तेनाली राम यदि तुम्हे सोने के आम चाहिए थे, तो मुझसे मॉग लेते। तुम इतने लालची कैसे हो गए कि तुमने ब्राह्म्णों से सोने के आम ले लिए?”


“महाराज, मैं लालची नहीं हूँ, अपितु मैं तो उनकी लालच की प्रवॄत्ति को रोक रहा था। यदि वे आपकी मॉ की पुण्यतिथि पर सोने के आम ग्रहण कर सकते हैं, तो मेरी मॉ की पुण्यतिथि पर लोहे की गर्म सलाखें क्यों नहीं झेल सकते?”


राजा तेनाली राम की बातों का अर्थ समझ गए। उन्होंने ब्राह्म्णों को बुलाया और उन्हें भविष्य में लालच त्यागने को कहा।


2.अपमान का बदला:-


तेनालीराम ने सुना था कि राजा कृष्णदेव राय बुद्धिमानों व गुणवानों का बड़ा आदर करते हैं। उसने सोचा, क्यों न उनके यहाँ जाकर भाग्य आजमाया जाए। लेकिन बिना किसी सिफारिश के राजा के पास जाना टेढ़ी खीर थी। वह किसी ऐसे अवसर की ताक में रहने लगा। जब उसकी भेंट किसी महत्वपूर्ण व्यक्ति से हो सके।

इसी बीच तेनालीराम का विवाह दूर के नाते की एक लड़की मगम्मा से हो गया। एक वर्ष बाद उसके घर बेटा हुआ। इन्हीं दिनों राजा कृष्णदेव राय का राजगुरु मंगलगिरि नामक स्थान गया। वहाँ जाकर रामलिंग ने उसकी बड़ी सेवा की और अपनी समस्या कह सुनाई।


राजगुरु बहुत चालाक था। उसने रामलिंग से खूब सेवा करवाई और लंबे-चौड़े वायदे करता रहा। रामलिंग अर्थात तेनालीराम ने उसकी बातों पर विश्वास कर लिया और राजगुरु को प्रसन्न रखने के लिए दिन-रात एक कर दिया। राजगुरु ऊपर से तो चिकनी-चुपड़ी बातें करता रहा, लेकिन मन-ही-मन तेनालीराम से जलने लगा।


उसने सोचा कि इतना बुद्धिमान और विद्वान व्यक्ति राजा के दरबार में आ गया तो उसकी अपनी कीमत गिर जाएगी। पर जाते समय उसने वायदा किया-‘जब भी मुझे लगा कि अवसर उचित है, मैं राजा से तुम्हारा परिचय करवाने के लिए बुलवा लूँगा।’ तेनालीराम राजगुरु के बुलावे की उत्सुकता से प्रतीक्षा करने लगा, लेकिन बुलावा न आना था और न ही आया।


लोग उससे हँसकर पूछते, ‘क्यों भाई रामलिंग, जाने के लिए सामान बाँध लिया ना?’ कोई कहता, ‘मैंने सुना है कि तुम्हें विजयनगर जाने के लिए राजा ने विशेष दूत भेजा है।’ तेनालीराम उत्तर देता-‘समय आने पर सब कुछ होगा।’ लेकिन मन-ही-मन उसका विश्वास राजगुरु से उठ गया।


तेनालीराम ने बहुत दिन तक इस आशा में प्रतीक्षा की कि राजगुरु उसे विजयनगर बुलवा लेगा। अंत में निराश होकर उसने फैसला किया कि वह स्वयं ही विजयनगर जाएगा। उसने अपना घर और घर का सारा सामान बेचकर यात्रा का खर्च जुटाया और माँ, पत्नी तथा बच्चे को लेकर विजयनगर के लिए रवाना हो गया।


यात्रा में जहाँ कोई रुकावट आती, तेनालीराम राजगुरु का नाम ले देता, कहा, ‘मैं उनका शिष्य हूँ।’ उसने माँ से कहा, ‘देखा? जहाँ राजगुरु का नाम लिया, मुश्किल हल हो गई। व्यक्ति स्वयं चाहे जैसा भी हो, उसका नाम ऊँचा हो तो सारी बाधाएँ अपने आप दूर होने लगती हैं। मुझे भी अपना नाम बदलना ही पड़ेगा।


राजा कृष्णदेव राय के प्रति सम्मान जताने के लिए मुझे भी अपने नाम में उनके नाम का कृष्ण शब्द जोड़ लेना चाहिए। आज से मेरा नाम रामलिंग की जगह रामकृष्ण हुआ।’


‘बेटा, मेरे लिए तो दोनों नाम बराबर हैं। मैं तो अब भी तुझे राम पुकारती हूँ, आगे भी यही पुकारूँगी।’ माँ बोली।


कोडवीड़ नामक स्थान पर तेनालीराम की भेंट वहाँ के राज्य प्रमुख से हुई, जो विजयनगर के प्रधानमंत्री का संबंधी था। उसने बताया कि महाराज बहुत गुणवान, विद्वान और उदार हैं, लेकिन उन्हें कभी-कभी जब क्रोध आता है तो देखते ही देखते सिर धड़ से अलग कर दिए जाते हैं। ‘जब तक मनुष्य खतरा मोल न ले, वह सफल नहीं हो सकता। मैं अपना सिर बचा सकता हूँ।


तेनालीराम के स्वर में आत्मविश्वास था। राज्य प्रमुख ने उसे यह भी बताया कि प्रधानमंत्री भी गुणी व्यक्ति का आदर करते हैं, पर ऐसे लोगों के लिए उनके यहाँ स्थान नहीं है, जो अपनी सहायता आप नहीं कर सकते। चार महीने की लंबी यात्रा के बाद तेनालीराम अपने परिवार के साथ विजयनगर पहुँचा। वहाँ की चमक-दमक देखकर तो वह दंग ही रह गया।


चौड़ी-चौड़ी सड़कें, भीड़भीड़, हाथी-घोड़े, सजी हुई दुकानें और शानदार इमारतें- यह सब उसके लिए नई चीजें थी।’ उसने कुछ दिन ठहरने के लिए वहाँ एक परिवार से प्रार्थना की। वहाँ अपनी माँ, पत्नी और बच्चे को छोड़कर वह राजगुरु के यहाँ पहुँचा। वहाँ तो भीड़ का ठिकाना ही नहीं था।


राजमहल के बड़े-से-बड़े कर्मचारी से लेकर रसोइया तक वहाँ जमा थे। नौकर-चाकर भी कुछ कम न थे। तेनालीराम ने एक नौकर को संदेश देकर भेजा कि उनसे कहो तेनाली गाँव से राम आया है। नौकर ने वापस आकर कहा, ‘राजगुरु ने कहा है कि वह इस नाम के किसी व्यक्ति को नहीं जानते।’


तेनालीराम बहुत हैरान हुआ। वह नौकरों को पीछे हटाता हुआ सीधे राजगुरु के पास पहुँचा, ‘राजगुरु आपने मुझे पहचाना नहीं? मैं रामलिंग हूँ, जिसने मंगलगिरि में आपकी सेवा की थी।’ राजगुरु भला उसे कब पहचानना चाहता था। उसने नौकरों से चिल्लाकर कहा, ‘मैं नहीं जानता, यह कौन आदमी है, इसे धक्के देकर बाहर निकाल दो।’


नौकरों ने तेनालीराम को धक्के देकर बाहर निकाल दिया। चारों ओर खड़े लोग यह दृश्य देखकर ठहाके लगा रहे थे। उसका कभी ऐसा अपमान नहीं हुआ था। उसने मन-ही-मन फैसला किया कि राजगुरु से वह अपने अपमान का बदला अवश्य लेगा। लेकिन इससे पहले राजा का दिल जीतना जरूरी था।


दूसरे दिन वह राजदरबार में जा पहुँचा। उसने देखा कि वहाँ जोरों का वाद-विवाद हो रहा है। संसार क्या है? जीवन क्या है? ऐसी बड़ी-बड़ी बातों पर बहस हो रही थी। एक पंडित ने अपने विचार प्रकट करते हुए कहा, ‘यह संसार एक धोखा है। हम जो देखते-सुनते हैं, महसूस करते हैं, चखते या सूँघते हैं, केवल हमारे विचार में है। असल में यह सब कुछ नहीं होता, लेकिन हम सोचते हैं कि होता है।’


‘क्या सचमुच ऐसा है?’तेनालीराम ने कहा। ‘यही बात हमारे शास्त्रों में भी कही गई है।’ पंडितजी ने थोड़ी ऐंठ दिखाते हुए हैरान होकर पूछा। और सब लोग चुप बैठे। शास्त्रों ने जो कहा, वह झूठ कैसे हो सकता है।


लेकिन तेनालीराम शास्त्रों से अधिक अपनी बुद्धि पर विश्वास करता था। उसने वहाँ बैठे सभी लोगों से कहा, ‘यदि ऐसी बात है तो हम क्यों न पंडितजी के इस विचार की सच्चाई जाँच लें। हमारे उदार महाराज की ओर से आज दावत दी जा रही है, उसे हम जी भरकर खाएँगे। पंडितजी से प्रार्थना है कि वह बैठे रहें और सोचें कि वह भी खा रहे हैं।’


तेनालीराम की बात पर जोर का ठहाका लगा। पंडितजी की सूरत देखते ही बनती थी कि महाराज तेनालीराम पर इतने प्रसन्न हुए कि उसे स्वर्णमुद्राओं की एक थाली भेंट की और उसी समय तेनालीराम को राज विदूषक बना दिया। सब लोगों ने तालियाँ बजाकर महाराज की इस घोषणा का स्वागत किया, उनमें राजगुरु भी था।


3.अपराधी:-


एक दिन राजा कॄष्णदेव राय व उनके दरबारी, दरबार में बैठे थे। तेनाली राम भी वहीं थे । अचानक एक चरवाहा वहॉ आया और बोला, ” महाराज, मेरी सहायता कीजिए। मेरे साथ न्याय कीजिए।”

“बताओ, तुम्हारे साथ क्या हुआ है?” राजा ने पूछा।


“महाराज, मेरे पडोस मे एक कंजूस आदमी रहता है। उसका घर बहुत पुराना हो गया है, परन्तु वह उसकी मरम्मत नहीं करवाता। कल उसके घर की एक दीवार गिर गई और मेरी बकरी उसके नीचे दबकर मर गई। कॄपया मेरे पडोसी से मेरी बकरी का हर्जाना दिलवाने में मेरी सहायता कीजिए।”


महाराज के कुछ कहने के पहले ही तेनाली राम अपने स्थान से उठा और बोला, “महाराज, मेरे विचार से दीवार टूटने के लिए केवल इसके पडोसी को दोषी नहीं ठहराया जा सकता।”


“तो फिर तुम्हारे विचार में दोषी कौन है?” राजा ने पूछा।


“महाराज, यदि आप मुझे अभी थोडा समय दें, तो मैं इस बात की गहराई तक जाकर असली अपराधी को आपके सामने प्रस्तुत कर दूंगा।” तेनाली राम ने कहा।


राजा ने तेनाली राम के अनुरोध को मान कर उसे समय प्रदान कर दिया। तेनाली राम ने चरवाहे के पडोसी को बुलाया और उसे मरी बकरी का हर्जाना देने के लिए कहा। पडोसी बोला, “महोदय, इसके लिए मैं दोषी नहीं हूँ। यह दीवार तो मैंने मिस्त्री से बनवाई थी, अतः असली अपराधी तो वह मिस्त्री है, जिसने वह दीवार बनाई। उसने इसे मजबूती से नहीं बनाया। अतः वह गिर गई।”


तेनाली राम ने मिस्त्री को बुलवाया। मिस्त्री ने भी अपने को दोषी मानने से इनकार कर दिया और बोला, “अन्नदाता, मुझे व्यर्थ ही दोषी करार दिया जा रहा है जबकि मेरा इसमें कोई दोष नहीं है। असली दोष तो उन मजदूरों का है, जिन्होंने गारे में अधिक पानी मिलाकर मिश्रण को खराब बनाया, जिससे ईंटें अच्छी तरह से चिपक नहीं सकीं और दीवार गिर गई। आपको हर्जाने के लिए उन्हें बुलाना चाहिए।”


राजा ने मजदूरों को बुलाने के लिए अपने सैनिकों को भेजा। राजा के सामने आते ही मजदूर बोले, “महाराज, इसके लिए हमें दोषी तो वह पानी वाला व्यक्ति है, जिसने गारे चूने में अधिक पानी मिलाया।”


अब की बार गारे में पानी मिलाने वाले व्यक्ति को बुलाया गया। अपराध सुनते ही वह बोला, “इसमें मेरा कोई दोष नहीं है महाराज, वह बर्तन जिसमें पानी हुआ था, वह बहुत बडा था। जिस कारण उसमें आवश्यकता से अधिक पानी भर गया। अतः पानी मिलाते वक्त मिश्रण में पानी की मात्रा अधिक हो गई। मेरे विचार से आपको उस व्यक्ति को पकडना चाहिए, जिसने पानी भरने के लिए मुझे इतना बडा बर्तन दिया।


तेनाली राम के पूछने पर कि वह बडा बर्तन उसे कहॉ से मिला, उसने बताया कि पानी वाला बडा बर्तन उसे चरवाहे ने दिया था, जिसमें आवश्यकता से अधिक पानी भर गया था|


तब तेनाली राम ने चरवाहे से कहा, “देखो, यह सब तुम्हारा ही दोष है। तुम्हारी एक गलती ने तुम्हारी ही बकरी की जान ले ली।”


चरवाहा लज्जित होकर दरबार से चला गया। परन्तु सभी तेनाली राम के बुद्धिमतापूर्ण न्याय की भूरी-भूरी प्रशंसा कर रहे थे।


4.उधार का बोझ:-


एक बार किसी वित्तीय समस्या में फ़ँसकर तेनाली राम ने राजा कॄष्णदेव राय से कुछ रुपए उधार लिए थे। समय बीतता गया और पैसे वापस करने का समय भी निकट आ गया। परन्तु तेनाली के पास पैसे वापस लौटाने का कोई प्रबन्ध नही हो पाया था। सो उसने उधार चुकाने से बचने के लिए एक योजना बनाई।

एक दिन राजा को तेनाली राम की पत्नी की और से एक पत्र मिला। उस पत्र मे लिखा था कि तेनाली राम बहुत बीमार है। तेनाली राम कई दिनो से दरबार मे भी नहीं आ रहा था, इसलिय राजा ने सोचा कि स्वयं जाकर तेनाली से मिला जाए। साथ ही राजा को भी सन्देह हुआ कि कहीं उधार से बचने के लिय तेनाली राम की कोई योजना तो नहीं है।


राजा तेनली राम के घर पँहुचे। वहाँ तेनाली राम कम्बल ओढकर पलंग पर लेटा हुआ था। उसकी ऐसी अवस्था देखकर राजा ने उसकी पत्नी से कारण पूछा। वह बोली, “महाराज, इनके दिल पर आपके दिए हुए उधार का बोझ है। यही चिन्ता इन्हें अन्दर ही अन्दर खाए जा रही है और शायद इसी कारण यह बीमार हो गए।”


राजा ने तेनाली को सांत्वना दी और कहा,”तेनाली, तुम परेशान मत हो। तुम मेरा उधार चुकाने के लिए नहीं बँधे हुए हो। चिन्ता छोडो और शीघ्र स्वस्थ हो जाओ।”


यह सुन तेनाली राम पलंग से कूद पडा और हँसते हुए बोला ,” महाराज, धन्यवाद।” “यह क्या है, तेनाली? इसका मतलब तुम बीमार नहीं थे। मुझसे झूठ बोलने का तुम्हारा साहस कैसे हुआ?” राजा ने क्रोध में कहा।


“नहीं नहीं, महाराज,मैने आपसे झूठ नहीं बोला। मैं उधार के बोझ से बीमार था। आपने जैसे ही मुझे उधार से मुक्त किया, तभी से मेरी सारी चिन्ता खत्म हो गई और मेरे ऊपर से उधार का बोझ हट गया। इस बोझ के हटते ही मेरी बीमारी भी जाती रही और मैं अपने को स्वस्थ महसूस करने लगा। अब आपके आदेशानुसार मैं स्वतंत्र, स्वस्थ व प्रसन्न हूँ।”


हमेशा की तरह राजा के पास कहने के लिए कुछ न था, वह तेनाली की योजना पर मुस्करा पडे।


5.ऊँट का कूबड:-


एक बार राजा कॄष्णदेव राय तेनाली राम के किसी तर्क से बहुत प्रसन्न हुए और बोले, “तेनाली, तुमने आज मुझे प्रसन्न कर दिया, एसके बदले, मैं एक पूरा नगर तुम्हें उपहार स्वरुप देता हूँ।”

तेनाली ने झुककर उनको धन्यवाद कहा। इसके बाद कई दिन बीत गए, परन्तु राजा कॄष्णदेव राय ने अपना वचन पूरा नहीं किया। वे तेनाली को एक नगर उपहार में देने का अपना वचन भूल गए थे। राजा के इस प्रकार वचन भूल जाने से तेनाली बडा परेशान था। उसे समझ नहीं आ रहा था कि क्या करे। परन्तु फिर भी राजा को उनका वचन याद दिलवाना तेनाली को अच्छा नहीं लग रहा था। इसलिए वह एक उचित मौके की तलाश में था।


एक दिन एक अरबी व्यक्ति विजयनगर आया, उसके पास एक ऊँट था। लोगों की भारी भीड ऊँट को देखने के लिए इकट्ठी हो गई, क्योंकि उनके लिए वह एक अजूबा था । उन्होंने ऊँट के बारे में सुना था, पर कभी ऊँट देखा नहीं था। राजा एवं तेनाली भी ऊँट नामक इस अजीबो-गरीब जानवर को देखने आए।


दोनों एक साथ खडे हुए ऊँट को देख रहे थे। राजा बोले, तेनाली, निःसन्देह ऊँट एक विचित्र जानवर है। इसकी लम्बी गर्दन तथा कमर पर दो कूबड हैं। मैं हैरान हूँ कि भगवान ने ऐसा विचित्र तथा बदसूरत प्राणी पॄथ्वी पर क्यों भेजा?”


राजा कॄष्णदेव राय की इस बात पर तेनाली को जवाब देने का अवसर मिला और वह सदैव की तरह आज भी अपने उत्तर के साथ तैयार था । वह बोला, “महाराज, शायद …. शायद क्या बल्कि अवश्य ही यह ऊँट अपने पूर्वजन्म में कोई राजा रहा होगा और शायद इसने भी कभी किसी को उपहार स्वरुप नगर देने का वचन दिया होगा और फिर बाद में भूल गया होगा। अतः दण्ड के रूप में ईश्वर ने इसे इस प्रकार का रुप दिया होगा।”


पहले तो राजा को यह तेनाली की एक बुद्धिपूर्ण काल्पनिक कहानी लगी, परन्तु कुछ समय पश्चात ही उन्हे तेनाली को दिया हुआ अपना वचन याद आ गया।


अपने शाही महल में वापस आते ही राजा ने तुरन्त कोषाध्यक्ष को बुलाया और उसे निर्देश दिया कि वह लिखित रुप में प्रबन्ध करे जिसके अनुसार राजा ने तेनाली राम को पूरा एक नगर उपहार स्वरुप प्रदान किया है। पूरा एक नगर उपहार स्वरुप ग्रहण करने के पश्चात तेनाली ने राजा को धन्यवाद दिया। और इस प्रकार एक बार फिर तेनाली ने अपनी बुद्धिमानी से काम लेकर राजा को उसका भूला हुआ वचन याद दिलाया।


6.कितने कौवे:-


महाराज कॄष्णदेव राय तेनालीराम का मखौल उडाने के लिए उल्टे-पुल्टे सवाल करते थे। तेनालीराम हर बार ऐसा उत्तर देते कि राजा की बोलती बन्द हो जाती। एक दिन राजा ने तेनालीराम से पूछा “तेनालीराम! क्या तुम बता सकते हो कि हमारी राजधानी में कुल कितने कौवे निवास करते है?” हां बता सकता हूं महाराज! तेनालीराम तपाक से बोले। महाराज बोले बिल्कुल सही गिनती बताना।

जी हां महाराज, बिल्कुल सही बताऊंगा। तेनालीराम ने जवाब दिया। दरबारियों ने अंदाज लगा लिया कि आज तेनालीराम जरुर फंसेगा। भला परिंदो की गिनती संभव हैं? “तुम्हें दो दिन का समय देते हैं। तीसरे दिन तुम्हें बताना हैं कि हमारी राजधानी में कितने कौवे हैं।” महाराज ने आदेश की भाषा में कहा।


तीसरे दिन फिर दरबार जुडा। तेनालीराम अपने स्थान से उठकर बोला “महाराज, महाराज हमारी राजधानी में कुल एक लाख पचास हजार नौ सौ निन्यानवे कौवे हैं। महाराज कोई शक हो तो गिनती करा लो।


राजा ने कहा गिनती होने पर संख्या ज्यादा-कम निकली तो? महाराज ऐसा, नहीम् होगा, बडे विश्वास से तेनालीराम ने कहा अगर गिनती गलत निकली तो इसका भी कारण होगा। राजा ने पूछा “क्या कारण हो सकता हैं?”


तेनालीराम ने जवाब दिया “यदि! राजधानी में कौवों की संख्या बढती हैं तो इसका मतलब हैं कि हमारी राजधानी में कौवों के कुछ रिश्तेदार और इष्ट मित्र उनसे मिलने आए हुए हैं। संख्या घट गई हैं तो इसका मतलब हैं कि हमारे कुछ कौवे राजधानी से बाहर अपने रिश्तेदारों से मिलने गए हैं। वरना कौवों की संख्या एक लाख पचास हजार नौ सौ निन्यानवे ही होगी तेनालीराम से जलने वाले दरबारी अंदर ही अंदर कुढ कर रह गए कि हमेशा की तरह यह चालबाज फिर अपनी चालाकी से पतली गली से बच निकला।


7.कीमती उपहार:-


लड़ाई जीतकर राजा कृष्णदेव राय ने विजय उत्सव मनाया। उत्सव की समाप्ति पर राजा ने कहा- ‘लड़ाई की जीत अकेले मेरी जीत नहीं है-मेरे सभी साथियों और सहयोगियों की जीत है। मैं चाहता हूँ कि मेरे मंत्रिमंडल के सभी सदस्य इस अवसर पर पुरस्कार प्राप्त करें। आप सभी लोग अपनी-अपनी पसंद का पुरस्कार लें। परंतु एक शर्त है कि सभी को अलग-अलग पुरस्कार लेने होंगे। एक ही चीज दो आदमी नहीं ले सकेंगे।’ यह घोषणा करने के बाद राजा ने उस मंडप का पर्दा खिंचवा दिया, जिस मंडप में सारे पुरस्कार सजाकर रखे गए थे। फिर क्या था! सभी लोग अच्छे-से-अच्छा पुरस्कार पाने के लिए पहल करने लगे। पुरस्कार सभी लोगों की गिनती के हिसाब से रखे गए थे।

अतः थोड़ी देर की धक्का-मुक्की और छीना-झपटी के बाद सबको एक-एक पुरस्कार मिल गया। सभी पुरस्कार कीमती थे। अपना-अपना पुरस्कार पाकर सभी संतुष्ट हो गए।अंत में बचा सबसे कम मूल्य का पुरस्कार-एक चाँदी की थाली थी।


यह पुरस्कार उस आदमी को मिलना था, जो दरबार में सबके बाद पहुँचे यानी देर से पहुँचने का दंड। सब लोगों ने जब हिसाब लगाया तो पता चला कि श्रीमान तेनालीराम अभी तक नहीं पहुँचे हैं। यह जानकर सभी खुश थे।


सभी ने सोचा कि इस बेतुके, बेढंगे व सस्ते पुरस्कार को पाते हुए हम सब तेनालीराम को खूब चिढ़ाएँगे। बड़ा मजा आएगा। तभी श्रीमान तेनालीराम आ गए। सारे लोग एक स्वर में चिल्ला पड़े, ‘आइए, तेनालीराम जी! एक अनोखा पुरस्कार आपका इंतजार कर रहा है।’ तेनालीराम ने सभी दरबारियों पर दृष्टि डाली।


सभी के हाथों में अपने-अपने पुरस्कार थे। किसी के गले में सोने की माला थी, तो किसी के हाथ में सोने का भाला। किसी के सिर पर सुनहरे काम की रेशम की पगड़ी थी, तो किसी के हाथ में हीरे की अँगूठी। तेनालीराम उन सब चीजों को देखकर सारी बात समझ गया। उसने चुपचाप चाँदी की थाली उठा ली। उसने चाँदी की उस थाली को मस्तक से लगाया और उस पर दुपट्टा ढंक दिया, ऐसे कि जैसे थाली में कुछ रखा हुआ हो।


राजा कृष्णदेव राय ने थाली को दुपट्टे से ढंकते हुए तेनालीराम को देख लिया। वे बोले, ‘तेनालीराम, थाली को दुपट्टे से इस तरह क्यों ढंक रहे हो?’


‘क्या करुँ महाराज, अब तक तो मुझे आपके दरबार से हमेशा अशर्फियों से भरे थाल मिलते रहे हैं। यह पहला मौका है कि मुझे चाँदी की थाली मिली है। मैं इस थाल को इसलिए दुपट्टे से ढंक रहा हूँ ताकि आपकी बात कायम रहे। सब यही समझे कि तेनालीराम को इस बार भी महाराज ने थाली भरकर अशर्फियाँ पुरस्कार में दी हैं।’


महाराज तेनालीराम की चतुराई-भरी बातों से प्रसन्न हो गए। उन्होंने गले से अपना बहुमूल्य हार उतारा और कहा, ‘तेनालीराम, तुम्हारी आज भी खाली नहीं रहेगी। आज उसमें सबसे बहुमूल्य पुरस्कार होगा। थाली आगे बढ़ाओ तेनालीराम!’


तेनालीराम ने थाली राजा कृष्णदेव राय के आगे कर दी। राजा ने उसमें अपना बहुमूल्य हार डाल दिया। सभी लोग तेनालीराम की बुद्धि का लोहा मान गए। थोड़ी देर पहले जो दरबारी उसका मजाक उड़ा रहे थे, वे सब भीगी बिल्ली बने एक-दूसरे का मुँह देख रहे थे, क्योंकि सबसे कीमती पुरस्कार इस बार भी तेनालीराम को ही मिला था।


8.कुएं का विवाह:-


एक बार राजा कॄष्णदेव राय और तेनालीराम के बीच किसी बात को लेकर विवाद हो गया। तेनालीराम रुठकर चले गए। आठ-दस दिन बीते, तो राजा का मन उदास हो गया। राजा ने तुरन्त सेवको को तेनालीराम को खोजने भेजा। आसपास का पूरा क्षेत्र छान लिया पर तेनालीराम का कहीं अता-पता नहीं चला। अचानक राजा को एक तरकीब सूझी। उसने सभी गांवों में मुनादी कराई राजा अपने राजकीय कुएं का विवाह रचा रहे हैं, इसलिए गांव के सभी मुखिया अपने-अपने गांव के कुओं को लेकर राजधानी पहुंचे। जो आदमी इस आज्ञा का पालन नहीं करेगा, उसे जुर्माने में एक हजार स्वर्ण मुद्राएं देनी होंगी। मुनादी सुनकर सभी परेशान हो गए। भला कुएं भी कहीं लाए-ले जाए जा सकते हैं।

जिस गांव में तेनालीराम भेष बदलकर रहता था, वहां भी यह मुनादी सुनाई दी। गांव का मुखिया परेशान था। तेनालीराम समझ गए कि उसे खोजने के लिए ही महाराज ने यह चाल चली हैं। तेनालीराम ने मुखिया को बुलाकर कहा “मुखियाजी, आप चिंता न करें, आपने मुझे गांव में आश्रय दिया हैं, इसलिए आपके उपकार का बदला में चुकाऊंगा। मैं एक तरकीब बताता हूं आप आसपास के मुखियाओं को इकट्ठा करके राजधानी की ओर प्रस्थान करें”। सलाह के अनुसार सभी राजधानीकी ओर चल दिए। तेनालीराम भी उनके साथ थे।


राजधानी के बाहर पहुंचकर वे एक जगह पर रुक गए। एक आदमी को मुखिया का संदेश देकर राजदरबार में भेजा। वह आदमी दरबार में पहुंचा और तेनालीराम की राय के अनुसार बोला “महाराज! हमारे गांव के कुएं विवाह में शामिल होने के लिए राजधानी के बाहर डेरा डाले हैं। आप मेहरबानी करके राजकीय कुएं को उनकी अगवानी के लिए भेजें, ताकि हमारे गांव के कुएं ससम्मान दरबार के सामने हाजिर हो सकें।


राजा को उनकी बात समझते देर नहीं लगी कि ये तेनालीराम की तरकीब हैं। राजा ने पूछा सच-सच बताओ कि तुम्हें यहाक्ल किसने दी हैं? राजन! थोडे दिन पहले हमारे गांव में एक परदेशी आकर रुका था। उसी ने हमें यह तरकीब बताई हैं आगंतुक ने जवाब दिया। सारी बात सुनकर राजा स्वयं रथ पर बैठकर राजधानी से बाहर आए और ससम्मान तेनालीराम को दरबार में वापस लाए। गांव वालो को भी पुरस्कार देकर विदा किया।


9.कुत्ते की दुम सीधी:-


एक दिन राजा कृष्णदेव राय के दरबार में इस बात पर गरमागरम बहस हो रही थी कि मनुष्य का स्वभाव बदला जा सकता है या नहीं। कुछ का कहना था कि मनुष्य का स्वभाव बदला जा सकता है। कुछ का विचार था कि ऐसा नहीं हो सकता, जैसे कुत्ते की दुम कभी सीधी नहीं हो सकती।

राजा को एक विनोद सूझा। उन्होंने कहा, ‘बात यहाँ पहुँची कि अगर कुत्ते की दुम सीधी की जा सकती है, तो मनुष्य का स्वभाव भी बदला जा सकता है, नहीं तो नहीं बदला जा सकता।’ राजा ने फिर विनोद को आगे बढ़ाने की सोची, बोले, ‘ठीक है, आप लोग यह प्रयत्न करके देखिए।’


राजा ने दस चुने हुए व्यक्तियों को कुत्ते का एक-एक पिल्ला दिलवाया और छह मास के लिए हर मास दस स्वर्णमुद्राएँ देना निश्चित किया। इन सभी लोगों को कुत्तों की दुम सीधी करने का प्रयत्न करना था। इन व्यक्तियों में एक तेनालीराम भी था। शेष नौ लोगों ने इन छह महीनों में पिल्लों की दुम सीधी करने की बड़ी कोशिश कीं।


एक ने पिल्ले की पूँछ के छोर को भारी वजन से दबा दिया ताकि इससे दुम सीधी हो जाए। दूसरे ने पिल्ले की दुम को पीतल की एक सीधी नली में डाले रखा। तीसरे ने अपने पिल्ले की पूँछ सीधी करने के लिए हर रोज पूँछ की मालिश करवाई। छठे सज्जन कहीं से किसी तांत्रिक को पकड़ लाए, जो कई तरह से उटपटाँग वाक्य बोलकर और मंत्र पढ़कर इस काम को करने के प्रयत्न में जुटा रहा। सातवें सज्जन ने अपने पिल्ले की शल्य चिकित्सा यानी ऑपरेशन करवाया। आठवाँ व्यक्ति पिल्ले को सामने बिठाकर छह मास तक प्रतिदिन उसे भाषण देता रहा कि पूँछ सीधी रखो भाई, सीधी रखो।


नवाँ व्यक्ति पिल्ले को मिठाइयाँ खिलाता रहा कि शायद इससे यह मान जाए और अपनी पूँछ सीधी कर ले। पर तेनालीराम पिल्ले को इतना ही खिलाता, जितने से वह जीवित रहे। उसकी पूँछ भी बेजान सी लटक गई, जो देखने में सीधी ही जान पड़ती थी।


छह मास बीत जाने पर राजा ने दसों पिल्लों को दरबार में उपस्थित करने का आदेश दिया। नौ व्यक्तियों ने हट्टे-कट्टे और स्वस्थ पिल्ले पेश किए। जब पहले पिल्ले की पूँछ से वजन हटाया गया तो वह एकदम टेढ़ी होकर ऊपर उठ गई। दूसरी की दुम जब नली में से निकाली गई वह भी उसी समय टेढ़ी हो गई। शेष सातों पिल्लों की पूँछे भी टेढ़ी ही थीं।


तेनालीराम ने अपने अधमरा-सा पिल्ला राजा के सामने कर दिया। उसके सारे अंग ढलक रहे थे। तेनालीराम बोला, ‘महाराज, मैंने कुत्ते की दुम सीधी कर दी है।’ ‘दुष्ट कहीं के!’ राजा ने कहा, ‘बेचारे निरीह पशु पर तुम्हें दया भी नहीं आई? तुमने तो इसे भूखा ही मार डाला। इसमें तो पूँछ हिलाने जितनी शक्ति भी नहीं है।’


‘महाराज, अगर आपने कहा होता कि इसे अच्छी तरह खिलाया-पिलाया जाए तो मैं कोई कसर नहीं छोड़ता। पर आपका आदेश तो इसकी पूँछ को स्वभाव के विरुद्ध सीधा करने का था, जो इसे भूखा रखने से ही पूरा हो सकता था। बिल्कुल ऐसे ही मनुष्य का स्वभाव भी असल में बदलता नहीं है। हाँ, आप उसे काल कोठरी में बंद करके, उसे भूखा रखकर उसका स्वभाव मुर्दा बना सकते हैं।’


10.कौन बडा:-


एक बार राजा कॄष्णदेव राय महल में अपनी रानी के पास विराजमान थे। तेनालीराम की बात चली, तो बोले सचमुच हमारे दरबार में उस जैसा चतुर कोई और नहीं हैं इसलिए अभी तक तो कोई उसे हरा नहीं पाया हैं।

सुनकर रानी बोली आप कल तेनालीराम को भोजन के लिए महल में आमंत्रित करें। मैं उसे जरुर हरा दूंगी। राजा ने मुस्कुराकर हामी भर ली । अगले दिन रानी ने अपने अपने हाथों से स्वादिष्ट पकवान बनाए। राजा के साथ बैठा तेनालीराम उन पकवानों की जी भर के प्रशंसा करता हुआ, खाता जा रहा था। खाने के बाद रानी ने उसे बढिया पान का बीडा भी खाने को दिया।


तेनालीराम मुस्कराकर बोला “सचमुच, आज जैसा खाने का आनंद तो मुझे कभी नहीं आया!” तभी रानी ने अचानक पूछ लिया, “अच्छा तेनालीराम एक बात बताओ। राजा बडे हैं या मैं? अब तो तेनालीराम चकराया। राजा-रानी दोनों ही उत्सुकता से देख रहे थे कि भला तेनालीराम क्या जवाब देता हैं। अचानक तेनालीराम को जाने क्या सूझा, उसने दोनों हाथ जोडकर पहले धरती को प्रणाम किया, फिर एकाएक जमीन पर गिर पडा। रानी घबराकर बोली “अरे-अरे, यह क्या तेनालीराम?”


तेनालीराम उठकर खडा हुआ, और बोला “महारानी जी, मेरे लिए तो आप धरती हैं और राजा आसमान! दोनों में से किसे छोटा, किसे बडा कहूं कुछ समझ में नहीं आ रहा हैं! वैसे आज महारानी के हाथों का बना भोजन इतना स्वादिष्ट था कि उहीं को बडा कहना होगा इसलिए मैं धरती को ही दंडवत प्रणाम कर रहा था।”


सुनकर राजा और रानी दोनों की हंसी छूट गई। रानी बोली “सचमुच तुम चतुर हो तेनालीराम। मुझे जिता दिया, पर हारकर भी खुद जीत गए।” इस पर महारानी और राजा कॄष्णदेव राय के साथ तेनालीराम भी खिल-खिलाकर हंस दिए।


11.खूंखार घोड़ा:-


विजयनगर के पड़ोसी मुसलमान राज्यों के पास बड़ी मजबूत सेनाएँ थीं। राजा कृष्णदेव राय चाहते थे कि विजयनगर की घुड़सवार फौज भी मजबूत हो ताकि हमला होने पर दुश्मनों का सामना कुशलता से किया जा सके।

उन्होंने बहुत से अरबी घोड़े खरीदने का विचार किया। मंत्रियों ने सलाह दी कि घोड़ों को पालने का एक आसान तरीका यह है कि शांति के समय ये घोड़े नागरिकों को रखने के लिए दिए जाएँ और जब युद्ध हो तो उन्हें इकट्ठा कर लिया जाए।


राजा को यह सलाह पसंद आ गई। उन्होंने एक हजार बढ़िया अरबी घोड़े खरीदे और नागरिकों को बाँट दिए। हर घोड़े के साथ घास, चने और दवाइयों के लिए खर्चा आदि दिया जाना भी तय हुआ। यह फैसला किया गया कि हर तीन महीनों के बाद घोड़ों की जाँच की जाएगी।


तेनालीराम ने एक घोड़ा माँगा तो उसको भी एक घोड़ा मिल गया। तेनालीराम घोड़े को मिलने वाला सारा खर्च हजम कर जाता। घोड़े को उसने एक छोटी-सी अँधेरी कोठरी में बंद कर दिया, जिसकी एक दीवार में जमीन से चार फुट की ऊँचाई पर एक छेद था। उसमें से मुट्ठी-भर चारा तेनालीराम अपने हाथों से ही घोड़े को खिला देता।


भूखा घोड़ा उसके हाथ में मुँह मार कर पल-भर में चारा चट कर जाता। तीन महीने बीतने पर सभी से कहा गया कि वे अपने घोड़ों की जाँच करवाएँ। तेनालीराम के अतिरिक्त सभी ने अपने घोड़ों की जाँच करवा ली।


राजा ने तेनालीराम से पूछा, ‘तुम्हारा घोड़ा कहाँ है।’ ‘महाराज, मेरा घोड़ा इतना खूँखार हो गया है कि मैं उसे नहीं ला सकता। आप घोड़ों के प्रबंधक को मेरे साथ भेज दीजिए। वही इस घोड़े को ला सकते हैं।’ तेनालीराम ने कहा। घोड़ों का प्रबंधक, जिसकी दाढ़ी भूसे के रंग की थी, तेनालीराम के साथ चल पड़ा।


कोठरी के पास पहुँचकर तेनालीराम बोला, ‘प्रबंधक, आप स्वयं देख लीजिए कि यह घोड़ा कितना खूँखार है। इसीलिए मैंने इसे कोठरी में बंद कर रखा है।’‘कायर कहीं के तुम क्या जानो घोड़े कैसे काबू में किए जाते हैं? यह तो हम सैनिकों का काम है।’ कहकर प्रबंधक ने दीवार के छेद में से झाँकने की कोशिश की।


सबसे पहले उसकी दाढ़ी छेद में पहुँची। इधर भूखे घोड़े ने समझा कि उसका चारा आ गया और उसने झपटकर दाढ़ी मुँह में ले ली। प्रबंधक का बुरा हाल था। वह दाढ़ी बाहर खींच रहा था लेकिन घोड़ा था कि छोड़ता ही न था। प्रबंधक दर्द के मारे जोर से चिल्लाया। बात राजा तक जा पहुँची। वह अपने कर्मचारियों के साथ दौड़े-दौड़े वहाँ पहुँचे। तब एक कर्मचारी ने कैंची से प्रबंधक की दाढ़ी काटकर जान छुड़ाई।


जब सबने कोठरी में जाकर घोड़े को देखा तो उनके आश्चर्य का ठिकाना न रहा। वह तो हड्डियों का केवल ढाँचा-भर रह गया था।


क्रोध से उबलते हुए राजा ने पूछा, ‘तुम इतने दिन तक इस बेचारे पशु को भूखा मारते रहे?’


‘महाराज, भूखा रहकर इसका यह हाल है कि इसने प्रबंधक की कीमती दाढ़ी नोंच ली। उन्हें इस घोड़े के चंगुल से छुड़ाने के लिए स्वयं महाराज को यहाँ आना पड़ा। अगर बाकी घोड़ों की तरह इसे भी जी-भरकर खाने को मिलता तो न जाने यह क्या कर डालता?’ राजा हँस पड़े और उन्होंने हमेशा की तरह तेनालीराम का यह अपराध भी क्षमा कर दिया।


12.जनता की अदालत:-


एक दिन राजा कृष्णदेव राय शिकार के लिए गए। वह जंगल में भटक गए। दरबारी पीछे छूट गए। शाम होने को थी। उन्होंने घोड़ा एक पेड़ से बांधा। रात पास के एक गांव में बिताने का निश्चय किया। राहगीर के वेश में किसान के पास गए। कहा, “दूर से आया हूं। रात को आश्रय मिल सकता है?”

किसान बोला, “आओ, जो रूखा-सूखा हम खाते हैं, आप भी खाइएगा। मेरे पास एक पुराना कम्बल ही है, क्या उसमें जाड़े की रात काट सकेंगे?” राजा ने ‘हां’ में सिर हिलाया।


रात को राजा गांव में घूमे। भयानक गरीबी थी। उन्होंने पूछा, “दरबार में जाकर फरियाद क्यों नहीं करते?” कैसे जाएं? राजा तो चापलूसों से घिरे रहते हैं। कोई हमें दरबार में जाने ही नहीं देता।” किसान बोला।


सुबह राजधानी लौटते ही राजा ने मंत्री और दूसरे अधिकारियों को बुलाया। कहा, “हमें पता चला है, हमारे राज्य के गांवों की हालत ठीक नहीं है। तुम गांवों की भलाई के काम करने के लिए खज़ाने से काफी रुपया ले चुके हो। क्या हुआ उसका?”


मंत्री बोला, “महाराज, सारा रुपया गांवों की भलाई में खर्च हुआ है। आपसे किसी ने गलत कहा।” मंत्री के जाने के बाद उन्होंने तेनाली राम को बुलवा भेजा। कल की पूरी घटना कह सुनाई। तेनाली राम ने कहा, “महाराज, प्रजा दरबार में नहीं आएगी। अब आपको ही उनके दरबार में जाना चाहिए। उनके साथ जो अन्याय हुआ है, उसका फैसला उन्हीं के बीच जाकर कीजिए।”


अगले दिन राजा ने दरबार में घोषणा की-“कल से हम गांव-गांव में जाएंगे, यह देखने के लिए कि प्रजा किस हाल में जी रही है!” सुनकर मंत्री बोला, “महाराज, लोग खुशहाल हैं। आप चिन्ता न करें। जाड़े में बेकार परेशान होंगे।”


तेनाली राम बोला, “मंत्रीजी से ज्यादा प्रजा का भला चाहने वाला और कौन होगा? यह जो कह रहे हैं, ठीक ही होगा। मगर आप भी तो प्रजा की खुशहाली देखिए।” मंत्री ने राजा को आसपास के गांव दिखाने चाहे। पर राजा ने दूर-दराज के गावों की ओर घोड़ा मोड़ दिया। राजा को सामने पाकर लोग खुल कर अपने समस्याएं बताने लगे।


मंत्री के कारनामे का सारा भेद खुल चुका था। वह सिर झुकाए खड़ा था। राजा कृष्णदेव राय ने घोषणा करवा दी- अब हर महीने कम से कम एक बार वे खुद जनता के बीच जाकर उनकी समस्याओं का समाधान करेंगे।


13.जाड़े की मिठाई:-


एक बार राजमहल में राजा कृष्णदेव राय के साथ तेनालीराम और राजपुरोहित बैठे थे। जाड़े के दिन थे। सुबह की धूप सेंकते हुए तीनों बातचीत में व्यस्त थे। तभी एकाएक राजा ने कहा-‘जाड़े का मौसम सबसे अच्छा मौसम होता है। खूब खाओ और सेहत बनाओ।’

खाने की बात सुनकर पुरोहित के मुँह में पानी आ गया। बोला-‘महाराज, जाड़े में तो मेवा और मिठाई खाने का अपना ही मजा है-अपना ही आनंद है।’ ‘अच्छा बताओ, जाड़े की सबसे अच्छी मिठाई कौन-सी है?’ राजा कृष्णदेव राय ने पूछा। पुरोहित ने हलवा, मालपुए, पिस्ते की बर्फी आदि कई मिठाइयाँ गिना दीं।


राजा कृष्णदेव राय ने सभी मिठाइयाँ मँगवाईं और पुरोहित से कहा-‘जरा खाकर बताइए, इनमें सबसे अच्छी कौन सी है?’ पुरोहित को सभी मिठाइयाँ अच्छी लगती थीं। किस मिठाई को सबसे अच्छा बताता।


तेनालीराम ने कहा, ‘सब अच्छी हैं, मगर वह मिठाई यहाँ नहीं मिलेगी।’ ‘कौन सी मिठाई?’ राजा कृष्णदेव राय ने उत्सुकता से पूछा- ‘और उस मिठाई का नाम क्या है?’ ‘नाम पूछकर क्या करेंगे महाराज। आप आज रात को मेरे साथ चलें, तो मैं वह मिठाई आपको खिलवा भी दूँगा।’


राजा कृष्णदेव राय मान गए। रात को साधारण वेश में वह पुरोहित और तेनालीराम के साथ चल पड़े। चलते-चलते तीनों काफी दूर निकल गए। एक जगह दो-तीन आदमी अलावा के सामने बैठे बातों में खोए हुए थे। ये तीनों भी वहाँ रुक गए। इस वेश में लोग राजा को पहचान भी न पाए। पास ही कोल्हू चल रहा था।


तेनालीराम उधर गए और कुछ पैसे देकर गरम-गरम गुड़ ले लिया। गुड़ लेकर वह पुरोहित और राजा के पास आ गए। अँधेरे में राजा और पुरोहित को थोड़ा-थोड़ा गरम-गरम गुड़ देकर बोले-‘लीजिए, खाइए, जाड़े की असली मिठाई।’ राजा ने गरम-गरम गुड़ खाया तो बड़ा स्वादिष्ट लगा।


राजा बोले, ‘वाह, इतनी बढ़िया मिठाई, यहाँ अँधेरे में कहाँ से आई?’ तभी तेनालीराम को एक कोने में पड़ी पत्तियाँ दिखाई दीं। वह अपनी जगह से उठा और कुछ पत्तियाँ इकट्ठी कर आग लगा दी। फिर बोला, ‘महाराज, यह गुड़ है।’


‘गुड़…और इतना स्वादिष्ट! ’ ‘महाराज, जाड़ों में असली स्वाद गरम चीज में रहता है। यह गुड़ गरम है, इसलिए स्वादिष्ट है।’ यह सुनकर राजा कृष्णदेव राय मुस्कुरा दिए। पुरोहित अब भी चुप था।


14.जादुई कुएँ:-


एक बार राजा कॄष्णदेव राय ने अपने गॄहमंत्री को राज्य में अनेक कुएँ बनाने क आदेश दिया। गर्मियॉ पास आ रही थीं, इसलिए राजा चाहते थे कि कुएँ शीघ्र तैयार हो जाएँ, ताकि लोगो को गर्मियों में थोडी राहत मिल सके। गॄहमंत्री ने इस कार्य के लिए शाही कोष से बहुत-सा धन लिया। शीघ्र ही राजा के आदेशानुसार नगर में अनेक कुएँ तैयार हो गए। इसके बाद एक दिन राजा ने नगर भ्रमण किया और कुछ कुँओं का स्वयं निरीक्षण किया। अपने आदेश को पूरा होते देख वह संतुष्ट हो गए।

गर्मियों में एक दिन नगर के बाहर से कुछ गॉव वाले तेनाली राम के पास् पहुँचे, वे सभी गॄहमंत्री के विरुध्द शिकायत लेकर आए थे। तेनाली राम ने उनकी शिकायत सुनी और् उन्हें न्याय प्राप्त करने का रास्ता बताया। तेनाली राम अगले दिन राजा से मिले और बोले, “महाराज! मुझे विजय नगर में कुछ चोरों के होने की सूचना मिली है। वे हमारे कुएँ चुरा रहे हैं।”


इस पर राजा बोले, “क्या बात करते हो, तेनाली! कोई चोर कुएँ को कैसे चुरा सकता है?” “महाराज! यह बात आश्चर्यजनक जरुर है, परन्तु सच है, वे चोर अब तक कई कुएँ चुरा चुके हैं।” तैनाली राम ने बहुत ही भोलेपन से कहा।


उसकी बात को सुनकर दरबार में उपस्थित सभी दरबारी हँसने लगे।


महाराज ने कहा’ “तेनाली राम, तुम्हारी तबियत तो ठीक है। आज कैसी बहकी-बहकी बातें कर रहे हो? तुम्हारी बातों पर कोई भी व्यक्ति विश्वास नहीं कर सकता।”


“महाराज! मैं जानता था कि आप मेरी बात पर विश्वास नही करंगे, इसलिए मैं कुछ गॉव वालों को साथ साथ लाया हूँ।वे सभी बाहर खडे हैं। यदि आपको मुझ पर विश्वास नहीं है, तो आप उन्हें दरबार में बुलाकर पूछ लीजिए। वह आपको सारी बात विस्तारपूर्वक बता दंगे।”


राजा ने बाहर खडे गॉव वालों को दरबार में बुलवाया। एक गॉव वाला बोला, “महाराज! गॄहमंत्री द्वारा बनाए गए सभी कुएँ समाप्त हो गए हैं। आप स्वयं देख सकते हैं।”


राजा ने उनकी बात मान ली और गॄहमंत्री, तेनाली राम, कुछ दरबारियों तथा गॉव वालो के साथ कुओं का निरीक्षण करने के लिए चल दिए। पूरे नगर का निरीक्षण करने के पश्चात उन्होंने पाया कि राजधानी के आस-पास के अन्य स्थानो तथा गॉवों में कोई कुऑ नहीं है। राजा को यह पता लगते देख गॄहमंत्री घबरा गया। वास्तव में उसने कुछ कुओ को ही बनाने का आदेश दिया था। बचा हुआ धन उसने अपनी सुख-सुविधओं पर व्यय कर दिया।


अब तक राजा भी तेनाली राम की बात का अर्थ समझ चुके थे। वे गॄहमंत्री पर क्रोधित होने लगे, तभी तेनाली राम बीच में बोल पडा “महाराज! इसमें इनका कोई दोष नहीं है। वास्तव में वे जादुई कुएँ थे, जो बनने के कुछ दिन बाद ही हवा में समाप्त हो गए।”


अपनी बात स्माप्त कर तेनाली राम गॄहमंत्री की ओर देखने लगा। गॄहमंत्री ने अपना सिर शर्म से झुका लिया। राजा ने गॄहमंत्री को बहुत डॉटा तथा उसे सौ और कुएँ बनवाने का आदेश दिया। इस कार्य की सारी जिम्मेदारी तेनाली राम को सौंपी गई।


15.तपस्या का सच:-


विजयनगर राज्य में बड़ी जोरदार ठंड पड़ रही थी। राजा कृष्णदेव राय के दरबार में इस ठंड की बहुत चर्चा हुई। पुरोहित ने महाराज को सुझाया। ‘महाराज, यदि इन दिनों यज्ञ किया जाए तो उसका फल उत्तम होगा। दूर-दूर तक उठता यज्ञ का धुआँ सारे वातावरण को स्वच्छ और पवित्र कर देगा।’

दरबारियों ने एक स्वर में कहा, ‘बहुत उत्तम सुझाव है पुरोहित जी का। महाराज को यह सुझाव अवश्य पसंद आया होगा।’ दरबारियों ने एक स्वर में कहा, ‘बहुत उत्तम सुझाव है पुरोहित जी का। महाराज को यह सुझाव अवश्य पसंद आया होगा।’ महाराज कृष्णदेव राय ने कहा-‘ठीक है। आप आवश्यकता के अनुसार हमारे कोष से धन प्राप्त कर सकते हैं।’


‘महाराज, यह महान यज्ञ सात दिन तक चलेगा। कम-से-कम एक लाख स्वर्ण मुद्राएँ तो खर्च हो ही जाएँगी।’ प्रतिदिन सवेरे सूर्योदय से पहले मैं नदी के ठंडे जल में खड़े होकर तपस्या करुँगा और देवी-देवताओं को प्रसन्न करुँगा। और अगले ही दिन से यज्ञ शुरू हो गया। इस यज्ञ में दूर-दूर से हजारों लोग आते और ढेरों प्रसाद बँटता है।


पुरोहित जी यज्ञ से पहले सुबह-सवेरे कड़कड़ाती ठंड में नदी के ठंडे जल में खड़े होकर तपस्या करते, देवी-देवताओं को प्रसन्न करते। लोग यह सब देखते और आश्चर्यचकित होते। एक दिन राजा कृष्णदेव राय भी सुबह-सवेरे पुरोहित जी को तपस्या करते देखने के लिए गए। उनके साथ तेनालीराम भी था।


ठंड इतनी थी कि दाँत किटकिटा रहे थे। ऐसे में पुरोहित जी को नदी के ठंडे पानी में खड़े होकर तपस्या करते देख राजा कृष्णदेव राय ने तेनालीराम से कहा, ‘आश्चर्य! अदभुत करिश्मा है! कितनी कठिन तपस्या कर रहे हैं हमारे पुरोहित जी। राज्य की भलाई की उन्हें कितनी चिंता है!’


‘वह तो है ही। आइए महाराज…जरा पास चलकर देखें पुरोहित जी की तपस्या को।’ तेनालीराम ने कहा। ‘लेकिन पुरोहित जी ने तो यह कहा है कि तपस्या करते समय कोई पास न आए। इससे उनकी तपस्या में विघ्न पैदा होगा।’ राजा ने कहा।


‘तो महाराज, हम दोनों ही कुछ देर तक उनकी प्रतीक्षा कर लें। जब पुरोहित जी तपस्या समाप्त करके ठंडे पानी से बाहर आएँ, तो फल-फूल देकर उनका सम्मान करें।’ राजा कृष्णदेव राय को तेनालीराम की यह बात जँच गई। वह एक ओर बैठकर पुरोहित को तपस्या करते देखते रहे।


काफी समय गुजर गया लेकिन पुरोहित जी ने ठंडे पानी से बाहर निकलने का नाम तक न लिया। तभी तेनालीराम बोल उठा- ‘अब समझ में आया। लगता है ठंड की वजह से पुरोहित जी का शरीर अकड़ गया है। इसीलिए शायद इन्हें पानी से बाहर आने में कष्ट हो रहा है। मैं इनकी सहायता करता हूँ।’


तेनालीराम नदी की ओर गया और पुरोहित जी का हाथ पकड़कर उन्हें बाहर खींच लाया। पुरोहित जी के पानी से बाहर आते ही राजा हैरान रह गए। उनकी समझ में कुछ नहीं आ रहा था। वे बोले, ‘अरे, पुरोहित जी की तपस्या का चमत्कार तो देखो! इनकी कमर से नीचे का सारा शरीर नीला हो गया।’


तेनालीराम हँसकर बोला, ‘यह कोई चमत्कार नहीं है, महाराज। यह देखिए…सर्दी से बचाव के लिए पुरोहित जी ने धोती के नीचे नीले रंग का जलरोधक पाजामा पहन रखा है।’ राजा कृष्णदेव राय हँस पड़े और तेनालीराम को साथ लेकर अपने महल की ओर चल दिए। पुरोहित दोनों को जाते हुए देखता रहा।


16.तेनाली एक योद्धा:-


एक बार एक प्रसिध्द योद्धा उत्तर भारत से विजयनगर आया। उसने कई युद्ध तथा पुरस्कार जीत रखे थे। इसके अतिरिक्त वह आज तक अपनी पूरी जिन्दगी में मल्ल युध्द में पराजित नहीं हुआ था। उसने युद्ध के लिए विजयनगर के योध्दाओं को ललकारा। उसके लम्बे, गठीले व शक्तिशाली शरीर के सामने विजयनगर का कोई भी योद्धा टिक न सका। अब विजयनगर की प्रतिष्ठा दॉव पर लग चुकी थी । इस बात से नगर के सभी योद्धा चिन्तित थे। बाहर से आया हुआ एक व्यक्ति पूरे विजयनगर को ललकार रहा था और वे सब कुछ भी नहीं कर पा रहे थे। अतः सभी योद्धाइस समस्या के हल के लिए तेनाली राम के पास गए।

उनकी बात बडे ध्यान से सुनने के बाद तेनाली राम बोला, ” सचमुच, यह एक बडी समस्या है। परन्तु उस योद्धा को तो कोई योद्धा ही हरा सकता है। मैं कोई योद्धा तो हूँ नहीं, बस एक विदुषक हूँ। इसमें मैं क्या कर सकता हूँ ?”


तेनाली राम की यह बात सुन सभी योद्धा निराश हो गए, क्योंकि उनकी एकमात्र आशा तेनाली राम ही था । जब वे निराश मन से जाने लगे तो तेनाली राम ने उन्हें रोक कर कहा, ” मैं उत्तर भारत के उस वीर योद्धा से युद्ध करुँगा और उसे हराऊँगा, परन्तु तुम्हें वचन देना कि जैसा मैं कहुँगा, तुम सब वैसा ही करोगे।” उन लोगों ने तुरन्त वचन दे दिया। वचन लेने के बाद तेनाली राम बोला, “शक्ति परीक्षण के दिन तुम सभी पदक पहना देना और उस योद्धा से मेरा परिचय अपने गुरु के रूप में कराना, और मुझे अपने कंधे पर बैठा कर ले जाना ।”


विजयनगर के योद्धाओं ने तेनाली राम को ऐसा ही करने आ आश्वासन दिया। निश्चित दिन के लिए तेनाली राम ने योद्धाओं को एक नारा भी याद करने को कहा जो कि इस प्रकार था, ‘ममूक महाराज की जय, मीस ममूक महाराज की जय। ‘ तेनाली राम ने कहा, “जब तुम मुझे कंधों पर बैठा कर युद्धभूमि में जाओगे, तब सभी इस नारे को जोर-जोर से बोलना।”


अगले दिन युद्धभूमि में जोर-जोर से नारा लगाते हुए योद्धाओं की ऊँची आवाज सुनकर उत्तर भारत के योध्दा ने सोचा कि अवश्य ही कोई महान योद्धा आ रहा है। नारा कन्नड भाषा का साधारण श्लोक था, जिसमें ‘ममूक’ का अर्थ था- ‘धूल चटाना” जब कि ‘मीस’ क अर्थ भी लगभग यही था। उत्तर भारत के योद्धा को कन्नड भाषा समझ में नहीं आ रही थी। अतः उसने सोचा कि कोई महान योद्धा आ रहा है।


तेनाली राम उत्तर भारत के योद्धा के पास आया और बोला, “इससे पहले कि मैं तुम्हारे साथ युध्द करुँ, तुम्हें मेरे हाव-भावों का अर्थ बताना होगा। दर असल प्रत्येक महान योध्दा को इन हाव-भावों का अर्थ ज्ञात होना चाहिए। अगर तुम मेरे हाव-भावों का अर्थ बता दोगे, तभी मैं तुम्हारे साथ युद्ध करुँगा। यदि तुम अर्थ नहीं बता सके तो तुम्हें अपनी पराजय स्वीकार करनी पडेगी।”


इतने बडे-बडे योद्धाओं को देख, जो कि तेनाली राम को कन्धों पर उठाकर लाए थे और उसे अपना गुरु बता रहे थे व जोर-जोर से नारा भी लगा रहे थे, वह योद्धा सोचने लगा कि अवश्य ही तेनाली राम कोई बहुत ही महान योद्धा है। अतः उसने तेनाली की बात स्वीकार कर ली।


इसके बाद तेनाली राम ने संकेत देने आरम्भ किए। तेनाली राम ने सर्वप्रथम अपना दायॉ पैर आगे करके योद्धा की छाती को अपने दाएँ हाथ से छुआ। फिर अपने बाएँ हाथ से उसने स्वयं को छुआ। तत्पश्चात उसने अपने दाएँ हाथ को बाएँ हाथ पर रखकर जोर से उसने दबा दिया । इसके बाद उसने अपनी तर्जनी से दक्षिण दिशा की ओर संकेत किया।


फिर उसने अपने दोनों हाथों की तर्जनी उँगलियों से एक गॉठ बनाई। तत्पश्चात एक मुट्ठी मिट्टी उठाकर अपने मुँह में डालने का अभिनय किया।


इसके पश्चात उसने उत्तर भारत के योद्धा से इन हाव-भावों को पहचानने के लिए कहा। परन्तु वह योद्धा कुछ समझ नहीं पाया, इसलिए उसने अपनी पराजय स्वीकार कर ली। वह विजयनगर से चला गया और जाते-जाते अपने सभी पदक व पुरस्कार तेनाली राम को दे गया।


विजयनगर के राजा व प्रजा परिस्थिति के बदलते ही अचम्भित से हो गए। सभी योद्धा बिना युध्द किए ही जीतने से प्रसन्न थे। राजा ने तेनाली राम को बुलाकर पूछा, “तेनाली, उन हाव-भावों से तुमने क्या चमत्कार किया?”


तेनाली राम बोला, “महाराज, इसमें कोई चमत्कार नहीं था। यह मेरी योद्धा को मूर्ख बनाने की योजना थी। मेरे हाव-भावों के अनुसार वह योद्धा उसी प्रकार शक्तिशाली था, जिस प्रकार किसी का दायॉ हाथ शक्तिशाली होता है और मैं उसके सामने बाएँ हाथ की तरह निर्बल था। यदि दाएँ हाथ के समान शक्तिशाली योद्धा बाएँ हाथ के समान निर्बल योद्धा को युद्ध के लिए ललकारेगा, तो निर्बल योद्धा तो बादाम की तरह कुचल दिया जाएगा। सो यदि मैं युद्ध हारता, तो दक्षिण दिशा में बैठी मेरी पत्नी को अपमान रुपी धूल खानी पडती। मेरे हाव-भावों का केवल यही अर्थ था, जिसे वह समझ नहीं पाया।”


तेनाली का यह जवाब सुनकर राजा व सभी एकत्रित लोग ठहाका लगाकर हँस पडे।


17.तेनाली का पुत्र:-


राजा कॄष्णदेव राय के महल में एक विशाल उधान था। वहॉ विभिन्न प्रकार के सुन्दर-सुन्दर फूल लगे थे। एक बार एक विदेशी ने उन्हें एक पौधा उपहार में दिया, जिस पर गुलाब उगते थे। बगीचे के सभी पौधों में राजा को वह पौधा अत्यन्त प्रिय था। एक दिन राजा ने देखा कि पौधे पर गुलाब की संख्या कम हो रही है। उन्हें लगा कि हो न हो, अवश्य ही कोई गुलाबों की चोरी कर रहा है। उन्होंने पहरेदारों को सतर्क रहने तथा गुलाबों के चोर को पकडने का आदेश दिया।

अगले दिन पहरेदारों ने चोर को रंगे हाथ पकड लिया। वह और कोई नहीं, तेनाली का पुत्र था। उस समय के नियमानुसार किसी भी चोर को जब पकडा जाता था तो उसे विजयनगर की सडकों पर घुमाया जाता था। अन्य लोगों की तरह तेनाली राम ने भी सुना कि उसके पुत्र को गुलाब चुराते हुए पकडा गया है। जब तेनाली राम का पुत्र सिपाहियों के साथ घर के पास से गुजर रहा था, तो उसकी पत्नी तेनाली से बोली, “अपने पुत्र की रक्षा के लिए आप कुछ क्यों नहीं करते?”


इस पर तेनाली राम अपने पुत्र को सुनाते हुए जोर से बोला, “मैं क्या कर सकता हूँ? हॉ यदि वह अपनी तीखी जुबान का प्रयोग करे, तो हो सकता है कि स्वयं को बचा सके।”


तेनाली राम के पुत्र ने जब यह सुना तो वह कुछ समझ नहीं पाया। वह सोचने लगा कि पिताजी की इस बात का आखिर क्या अर्थ हो सकता है? पिताजी ने जरुर उसे ही सुनाने के लिए यह बात इतनी जोर से बोला है। मगर तीखी जुबान के प्रयोग करने का क्या मतलब हो सकता है? यदि वह इसका अर्थ समझ जाए तो वह बच सकता है।


कुछ क्षण पश्चात उसे समझ में आ गया कि पिता के कहने का क्या अर्थ है? अपनी तीखी जुबान को प्रयोग करने का अर्थ था कि वह मीठे गुलाबों को किसी को दिखने से पहले ही खा ले। अब क्या था, वह धीरे-धीरे गुलाब के फूलों को खाने लगा। इस प्रकार महल में पहुँचने से पहले ही वह सारे गुलाब खा गया और सिपाहियों ने उस पर कोई ध्यान भी नहीं दिया।


दरबार में पहुंचकर सिपाहियों ने तेनाली राम के पुत्र को राजा के सामने प्रस्तुत किया और कहा, महाराज ! इस लडके को हमने गुलाब चुराते हुए रंगे हाथों पकडा।”


“अरे! इतना छोटा बालक और चोर।” राजा ने आश्चर्य से पूछा।


इस पर तेनाली राम का पुत्र बोला, ” महाराज, मैं तो केवल बगीचे से जा रहा था परन्तु आपको प्रसन्न करने के लिए इन्होंने मुझे पकड लिया। मुझे लगता है कि वास्तव में, ये स्वयं ही गुलाब चुराते होगें। मैंने कोई गुलाब नहीं चुराया। क्या आपको मेरे पास कोई गुलाब दिखाई दे रहा है? यदि मैं रंगे हाथो पकडा गया हूँ, तो मेरे हाथो में गुलाब होने चाहिए थे।”


गुलाबों का न पाकर पहरेदार अच्म्भित हो गए। राजा उन पर क्रोधित होकर बोले, “तुम एक सीधे-सादे बालक को चोर कैसे कह सकते हो? इसे चोर सिद्ध करने के लिए तुम्हारे पास कोई सबूत भी नहीं है। जाओ और भविष्य में बिना सबूत के किसी पर अपराधी होने का आरोप मत लगाना।”


इस प्रकार तेनाली राम का पुत तेनाली की बुद्धिमता से स्वतन्त्र हो गया।


18.तेनाली का प्रयोग:-


तेनाली की बुध्दिमानी व चतुराई के कारण सभी उसे बहुत प्यार करते थे। परन्तु राजगुरु उससे ईर्ष्या करते थे। राजगुरु के साथ कुछ चापलूस दरबारी भी थे, जो उनके विचारों से सहमत थे। एक दिन सभी ने मिलकर तेनाली को अपमानित करने के लिए एक योजना बनाई। अगले दिन दरबार में राजगुरु राजा कॄष्णदेव राय से बोले, “महाराज, मैंने सुना है कि तेनाली ने पारस पत्थर ब्नाने की विधा सीखी है। पारस पत्थर जादुई पत्थर है, जिससे लोहा भी सोना बन जाता है।”

“यदि ऐसा है, तो राजा होने के नाते वह पत्थर प्रजा की भलाई के लिए मेरे पास होना चाहिए। इस विषय में मैं तेनाली से बात करुँगा।”


“परन्तु महाराज!आप उससे यह मत कहना कि यह सूचना मैंने आपको दी है।” राजगुरु ने राजा से प्रार्थना करते हुए कहा।


उस दिन तेनाली के दरबार में आने पर राजा ने उससे कहा, “तेनाली, मैंने सुना है कि तुम्हारे पास पारस है। तुमने लोहे को सोने में बदलकर बहुत धन इकट्ठा कर लिया है।”


तेनाली बुद्धिमान तो था ही सो वह तुरन्त समझ गया कि किसी ने राजा को उसके विरुद्ध झूठी कहानी सुनाकर उसे फंसाने की कोशिश की है। इसलिए वह राजा को प्रसन्न करते हुए बोला, “जी महाराज, यह सत्य है। मैंने ऐसी कला सीख ली है और इससे काफी सोना भी बनाया है।”


“तब तुम अपनी कला का प्रदर्शन अभी इसी समय दरबार में करो।’


“महाराज!मैं अभी ऐसा नहीं कर सकता। इसके लिए मुझे कुछ समय लगेगा। कल सुबह मैं आपको लोहे को सोने में परिवर्तित करने की कला दिखाऊँगा।”


राजगुरु व उसके साथी समझ गए कि तेनाली अब फँस गया है, लेकिन वे यह जानने को उत्सुक थे कि तेनाली राम इस मुसीबत से छुटकारा पाने के लिए क्या करता है?


अगले दिन तेनाली गली के एक कुत्ते के साथ दरबार में आया। उस कुत्ते की पूँछ को उसने एक नली में डाला हुआ था। उसे इस प्रकार दरबार में आता देख हर व्यक्ति हँस रहा था, परन्तु यह देखकर राजा क्रोधित हो गए और बोले, “तेनाली, तुमने एक गली के कुत्ते को राजदरबार मे लाने की हिम्मत कैसे की?”


“महाराज, पहले आप मेरे प्रश्न का उत्तर दीजिए। क्या आप जानते हैं कि कुत्ते की पूँछ को कितने भी वर्षों तक एक सीधी नली में रखें, तब भी वह सीधी नही होती। वह अपनी कुटिल प्रकॄति को कभी नहीं छोड सकती?”


“हॉ मैं इसके बारे मैं जानता हूँ।” राजा ने उत्तर दिया।


“महाराज, यहॉ मैं इसी बात को तो सिद्ध करना चाहता हूँ।” तेनाली राम बोला।


“अरे तेनाली, मूर्खों के समान बात मत करो। कुत्ते की पूँछ कभी सीधी हुई है जो तुम मुझसे पूँछ रहे हो। बल्कि तुम जानते हो कि तुम इस कुत्ते की पूँछ को सीधा नहीं कर सकते हो, क्योंकि यह उसकी प्रकॄति है।”


“ठीक यही तो मैं आपको दिखाना चाहता हूँ और सिद्ध करना चाहता हूँ कि जब एक कुत्ते की पूँछ अपनी प्रकॄति के विरुद्ध सीधी नहीं हो सकती, तो फिर लोहा अपनी प्रकॄती को छोडकर सोना कैसे बन सकता है?”


राजा कॄष्णदेव राय को तुरंत अपनी गलती का एहसास हो गया। वह समझ गए कि उन्होंने बिना कुछ सोचे-समझे राजगुरु की झुठी बातों पर आँख बंद करके विश्वास कर लिया। उन्होंने राजगुरु से तो कुछ नहीं कहा, परन्तु तेनाली को उसकी चतुराई के लिए पुरस्कॄत किया। राजगुरु व उनके साथी दरबारियों ने शर्म से झुका लिया क्योंकि उन लोगों के लिए यही अपमान व दण्ड था । इसके बाद तेनाली राम के खिलाफ कुछ भी कहने की उनकी हिम्मत नहीं होती थी ।


19.तेनाली की कला:-


विजयनगर के राजा अपने महल में चित्रकारी करवाना चाहते थे। इस काम के लिए उन्होंने एक चित्रकार को नियुक्त किया। चित्रों को जिसने देखा सबने बहुत सराहा पर तेनालीराम को कुछ शंका थी। एक चित्र की पॄष्ठभूमि में प्राकॄतिक दॄश्य था। उसके सामने खडे होकर उसने भोलेपन से पूछा, “इसका दूसरा पक्ष कहां हैं? इसके दूसरे अंग कहां हैं?” राजा ने हंसकर जवाब दिया, “तुम इतना भी नहीं जानते कि उनकी कल्पना करनी होती हैं।” तेनालीराम ने मुंह बिदकाते हुए कहा, “तो चित्र ऐसे बनते हैं! ठीक हैं, मैं समझ गया।”

कुछ महीने बाद तेनालीराम ने राजा से कहा, “कई महीनों से मैं दिन-रात चित्रकला सीख रहा हूं। आपकी आज्ञा हो तो मैं राज महल की दीवारों पर कुछ चित्र बनाना चाहता हूं।”


राजा ने कहा, “वाह! यह तो बहुत अच्छी बात हैं। ऐसा करो, जिन भित्तिचित्रों के रंग उड गए हैं उनको मिटाकर नए चित्र बना दो।”


तेनालीराम ने पुराने चित्रों पर सफेदी पोती और उनकी जगह अपने अए चित्र बना दिए। उसने एक पांव यहां बनाया, एक आंख वहां बनाई और एक अंगुली कहीं और। शरीर के भिन्न-भिन्न अंगों के चित्रों से उसने दीवारों को भर दिया। चित्रकारी के बाद राजा को उसकी कला देखने के लिए निमंत्रित किया। महल की दीवारों पर असंबद्ध अंगो के चित्र देख राजा को बहुत निराशा हुई। राजा ने पूछा, “यह तुमने क्या किया? तस्वीरें कहां हैं?”


तेनालीराम ने कहा, “चित्रों में बाकी चीजों की कल्पना करनी पडती हैं। आपने मेरा सबसे अच्छा चित्र तो अभी देखा ही नहीं।” यह कहकर वह राजा को एक खाली दीवार के पास ले गया जिस पर कुछेक हरी-पीली लकीरें बनी थी।


“यह क्या हैं?” राजा ने चिढकर पूछा।


“यह घास खाती गाय का चित्र हैं।” “लेकिन गाय कहां हैं?” राजा ने पूछा। “गाय घास खाकर अपने बाडे में चली गई।” ये कल्पना कर लीजिए हो गया न चित्र पूरा। राजा उसकी बात सुनकर समझ गया कि आज तेनालीराम ने उस दिन की बात का जवाब दिया हैं।


20.तेनालीराम और उपहार:-


विजयनगर के राजा कृष्णदेव राय के दरबार में एक दिन पड़ोसी देश का दूत आया। यह राजा कृष्णदेव राय के लिए अनेक उपहार भी लाया था। विजयनगर के राजदरबारियों ने दूत का खूब स्वागत-सत्कार किया। तीसरे दिन जब दूत अपने देश जाने लगा तो राजा कृष्णदेव राय ने भी अपने पड़ोसी देश के राजा के लिए कुछ बहुमूल्य उपहार दिए।

राजा कृष्णदेव राय उस दूत को भी उपहार देना चाहते थे, इसलिए उन्होंने दूत से कहा-‘हम तुम्हें भी कुछ उपहार देना चाहते हैं। सोना-चाँदी, हीरे,रत्न, जो भी तुम्हारी इच्छा हो, माँग लो।’ ‘महाराज, मुझे यह सब कुछ नहीं चाहिए। यदि देना चाहते हैं तो कुछ और दीजिए।’ दूत बोला। ‘महाराज, मुझे ऐसा उपहार दीजिए, जो सुख में दुख, में सदा मेरे साथ रहे और जिसे मुझसे कोई छीन न पाए।’ यह सुनकर राजा कृष्णदेव राय चकरा गए।


उन्होंने उत्सुक नजरों से दरबारियों की ओर देखा। सबके चेहरों पर परेशानी के भाव दिखाई दे रहे थे। किसी की भी समझ में नहीं आ रहा था कि ऐसा कौन-सा उपहार हो सकता है। तभी राजा कृष्णदेव राय को तेनालीराम की याद आई। वह दरबार में ही मौजूद था। राजा ने तेनालीराम को संबोधित करते हुए पूछा-‘क्या तुम ला सकते हो ऐसा उपहार जैसा दूत ने माँगा है?’ ‘अवश्य महाराज, दोपहर को जब यह महाशय यहाँ से प्रस्थान करेंगे, वह उपहार इनके साथ ही होगा।’ नियत समय पर दूत अपने देश को जाने के लिए तैयार हुआ। सारे उपहार उसके रथ में रखवा दिए गए।


जब राजा कृष्णदेव राय उसे विदा करने लगे तो दूत बोला-‘महाराज, मुझे वह उपहार तो मिला ही नहीं, जिसका आपने मुझसे वायदा किया था।’ राजा कृष्णदेव राय ने तेनालीराम की ओर देखा और बोले-‘तेनालीराम, तुम लाए नहीं वह उपहार?’ इस पर तेनालीराम हँसकर बोला, ‘महाराज, वह उपहार तो इस समय भी इनके साथ ही है। लेकिन यह उसे देख नहीं पा रहे हैं। इनसे कहिए कि जरा पीछे पलटकर देखें।’


दूत ने पीछे मुड़कर देखा, मगर उसे कुछ भी नजर न आया। वह बोला-‘कहाँ है वह उपहार? मुझे तो नहीं दिखाई दे रहा।’ तेनालीराम मुस्कुराए और बोले-‘जरा ध्यान से देखिए दूत महाशय, वह उपहार आपके पीछे ही है-आपका साया अर्थात आपकी परछाई। सुख में, दुख में, जीवन-भर यह आपके साथ रहेगा और इसे कोई भी आपसे नहीं छीन सकेगा।’ यह बात सुनते ही राजा कृष्णदेव राय की हँसी छूट गई। दूत भी मुस्कुरा पड़ा और बोला-‘महाराज, मैंने तेनालीराम की बुद्धिमता की काफी तारीफ सुनी थीं, आज प्रमाण भी मिल गया।’ तेनालीराम मुस्कराकर रह गया।

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